Sunday, January 23, 2011

साँप की मानिंद वोह डसती रही

साँप की मानिंद वोह डसती रही
मेरे अरमानों में जो रहती रही

रोज़ जलते हैं ग़रीबों के मकान
फिर यह क्यों गुमनाम सी बस्ती रही

साँझ का सूरज था लथपथ खून में
मौत मेहंदी की तरह रचती रही

सूनी थीं गलियाँ ओ गुमसुम रास्ते
नाम की बस्ती थी और बस्ती रही

ना ख़ुदा थे हम ज़माने के लिये
अपनी तो मँझधार में कश्ती रही

गाँव की चौपाल जब बेवा हुई
शहर में शहनाई क्यों बजती रही

गाँव के हर घर का उजड़ा है सुहाग
मौत दुल्हन की तरह सजती रही

उनको अपने नाम की ही भूख है
मेरी रोटी ही मुझे तकती रही

साँप साँपों से गले मिलते रहे
आदमीअत आदमी डसती रही

हर इक घर का "चाँद" था झुलसा हुआ
मुँह जली सी चाँदनी तपती रही

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