Sunday, January 23, 2011

वोह जब भी मिलतें हैं मैं हँस के ठहर जाता हूँ

वो जब भी मिलते हैं मैं हँस के ठहर जाता हूँ
उनकी आँखों के समंदर में उतर जाता हूँ

ख़ुद को चुनते हुए दिन सारा गुज़र जाता है
जब हवा शाम की चलती है बिखर जाता हूँ

अपने अश्कों से जला के तेरी यादों के चिराग
सुरमई शाम के दरपन में सँवर जाता हूँ

चाँदनी रात की वीरानियों में चलते हुए
जब अपने साये तो तकता हूँ तो डर जाता हूँ

चाँद तारे मेरे दामन में सिमट आते हैं
सियाह रात में जुगनू-सा चमक जाता हूँ

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