Sunday, January 23, 2011

ये कैसी दिल्लगी है दिल्लगी अच्छी नहीं लगती

ये कैसी दिल्लगी है दिल्लगी अच्छी नहीं लगती
हमें तो आपकी यह बेरुख़ी अच्छी नहीं लगती

अँधेरों से हमें क्या हम उजालों के हैं मतवाले
जलाओ शम्अ हमको तीरगी अच्छी नहीं लगती

खुला है घर का दरवाज़ा चलो चुपके-से आ जाओ
न जाने क्यों तेरी नाराज़गी अच्छी नहीं लगती

हुए हो तुम जुदा जब से तुम्हारा नाम है लब पर
हमें तो अब खुदा की बंदगी अच्छी नहीं लगती

मैं जब उनके ख़यालों में यूँ अक्सर खो-सा जाता हूँ
फिर उनकी भी मुझे मौजूदगी अच्छी नहीं लगती

मैं अपने चाँद तारों से सजा लेता हूँ महफ़िल को
चिराग़ों की ये मद्धम रौशनी अच्छी नहीं लगती

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