Sunday, January 23, 2011

हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे

हम खिलौनों की ख़ातिर तरसते रहे
चुटकियों-से ही अक्सर बहलते रहे

चार- सू थी हमारे बस आलूदगी
अपने आँगन में गुन्चे लहकते रहे

कितना खौफ़-आज़मा था ज़माने का डर
उनसे अक्सर ही छुप-छुप के मिलते रहे

ख़्वाहिशें थीं अधूरी न पूरी हुईं
चंद अरमाँ थे दिल में मचलते रहे

उनकी जुल्फें- परीशाँ जो देखा किये
कुछ भी कर न सके हाथ मलते रहे

चाँद जाने कहाँ कैसे खो-सा गया
चाँदनी को ही बस हम तरसते रहे

साथ क्या लाया था मैं और साथ क्या ले जाऊँगा

साथ क्या लाया था मैं और साथ क्या ले जाऊँगा
जिनके काम आया हूँ मैं उनकी दुआ ले जाऊँगा

ज़िंदगी काटी है मैंने अपनी मैंने सहरा के करीब
एक समुन्दर है जो साथ अपने बहा ले जाऊँगा

तेरे माथे की शिकन को मैं मिटाते मिट गया
अपने चेहरे पर मैं तेरा ग़म सजा ले जाऊँगा

जब तलक ज़िन्दा रहा बुझ-बुझ के मैं जलता रहा
शम्अ दिल में तेरी चाहत की जला ले जाऊँगा

बिन पलक झपके चकोरी-सी मुझे तकती है तू
अपनी पलकों पर तुझे मैं भी सजा ले जाऊँगा

चाँद तो है आसमाँ पर, मैं ज़मीं का `चाँद' हूँ
मैं ज़मीं को रूह में अपनी बसा ले जाऊँगा

साँप की मानिंद वोह डसती रही

साँप की मानिंद वोह डसती रही
मेरे अरमानों में जो रहती रही

रोज़ जलते हैं ग़रीबों के मकान
फिर यह क्यों गुमनाम सी बस्ती रही

साँझ का सूरज था लथपथ खून में
मौत मेहंदी की तरह रचती रही

सूनी थीं गलियाँ ओ गुमसुम रास्ते
नाम की बस्ती थी और बस्ती रही

ना ख़ुदा थे हम ज़माने के लिये
अपनी तो मँझधार में कश्ती रही

गाँव की चौपाल जब बेवा हुई
शहर में शहनाई क्यों बजती रही

गाँव के हर घर का उजड़ा है सुहाग
मौत दुल्हन की तरह सजती रही

उनको अपने नाम की ही भूख है
मेरी रोटी ही मुझे तकती रही

साँप साँपों से गले मिलते रहे
आदमीअत आदमी डसती रही

हर इक घर का "चाँद" था झुलसा हुआ
मुँह जली सी चाँदनी तपती रही

वोह जब भी मिलतें हैं मैं हँस के ठहर जाता हूँ

वो जब भी मिलते हैं मैं हँस के ठहर जाता हूँ
उनकी आँखों के समंदर में उतर जाता हूँ

ख़ुद को चुनते हुए दिन सारा गुज़र जाता है
जब हवा शाम की चलती है बिखर जाता हूँ

अपने अश्कों से जला के तेरी यादों के चिराग
सुरमई शाम के दरपन में सँवर जाता हूँ

चाँदनी रात की वीरानियों में चलते हुए
जब अपने साये तो तकता हूँ तो डर जाता हूँ

चाँद तारे मेरे दामन में सिमट आते हैं
सियाह रात में जुगनू-सा चमक जाता हूँ

वो ख़ुराफ़ात पर उतर आया

वो ख़ुराफ़ात पर उतर आया
अपनी औक़ात पर उतर आया

भेड़िया रूप में था इन्साँ के
एकदम ज़ात पर उतर आया

जिसकी नज़रों में सब बराबर थे
ज़ात और पात पर उतर आया

वो फ़राइज़ की बात करता था
इख़्तियारात पर उतर आया

हुक़्मे-परवर-दिगार मूसा के
मोजिज़ा हाथ पर उतर आया

चाँद जब आया अब्र से बाहर
नूर भी रात पर उतर आया

वो एक चाँद-सा चेहरा जो मेरे ध्यान में है

वो एक चाँद-सा चेहरा जो मेरे ध्यान में है
उसी के साये की हलचल मेरे मकान में है

मैं जिसकी याद में खोया हुआ-सा रहता हूँ
वो मेरी रूह में है और मेरी जान में है

वो जिसकी रौशनी से क़ायनात है जगमग
उसी के नूर का चर्चा तो कुल जहान में है

तुझे तलाश है जिस शय की मेरे पास कहाँ
तू जा के देख वो बाज़ार में दुकान में है

चला के देख ले बेशक तू मेरे सीने पर
वो तीर आख़िरी जो भी तेरी कमान में है

ये ज़िन्दगी है इसे ‘चाँद’, सहल मत समझो
हरेक साँस यहाँ गहरे इम्तिहान में है।

रोज़ मुझको न याद आया कर

रोज़ मुझको न याद आया कर
सब्र मेरा न आज़माया कर

रूथ जाती है नींद आँखों से
मेरे ख़्वाबों में तू न आया कर

भोर के भटके ऐ मुसाफ़िर सुन
दिन ढले घर को लौट आया कर

दिल के रखने से दिल नहीं फटता
दिल ही रखने को मुस्कुराया कर

राज़े दिल खुल न जाए लोगों पर
शेर मेरे न गुनगुनाया कर

ख़ुद को ख़ुद की नज़र भी लगती है
आईना सामने न लाया कर

रेत पे लिख के मेरा नाम अक्सर
बार बार इसको मत मिटाया कर

दोस्त होते हैं `चाँद’ शीशे के
दोस्तों को न आज़माया कर