कच्चा पक्का मकान था अपना
जिसमें सारा जहान था अपना
मैं था और साथ मेरी तन्हाई
माज़ी बस दरमियान था अपना
तुम भी थे साथ और ज़माना भी
एक कड़ा इम्तिहान था अपना
क्यों न उसको पुकारता यारब
सूना सूना जहान था अपना
"चाँद" था और ख़ला की वीरानी
एक फ़क़त आसमान था अपना
"कच्चा पक्का मकान था अपना" यह आपका लिखा हुआ है? अब आपने दूसरी पंक्ति तो बदल दी लेकिन अभी भी यह आपका तो नहीं है। यह मेरा शेर है:
ReplyDelete"कच्चा पक्का मकान था अपना
फिर भी कुछ तो निशान था अपना"
१२ साल पहले लिखा था। अनगनित बार गा चुका हूं और २००२ में भारत-दर्शन में प्रकाशित किया था और बरसों से नेट पर है - हाल ही में इसपर आपने अपना 'नेम टैग' जोड़ दिया। इतनी मेहनत लोगों की बौद्धिक संपत्ति अपनी बनाने पर लगा रहे है, इतनी ग़ज़ल के शिल्प और संरचना पर लगाते तो शेर आप खुद ही कह लेते।
मैं गूगल को भी इस विषय में लिख रहा हूँ।
रोहित कुमार 'हैप्पी'
संपादक, भारत-दर्शन
न्यूजीलैंड
लीजिए आपका करम और मेरी यह ताज़ा उतरी ग़ज़ल का मतला:
ReplyDeleteमेरी रोशनी आकर कोई चाँद चुराता है
सूरज हूँ मैं 'रोहित' कैसे मंदा हो जाऊँ?
मूल रचना 'कच्चा-पक्का मकान था मेरा' यहां भारत-दर्शन पर पढिए:
ReplyDeletehttp://www.bharatdarshan.co.nz/rohit/rohit-ke-geet/kaccha-pukka-makaan-thai-rohitkumar.html